आपकी सेहत का ख्याल रखने वाले सेबों की हालत इस सीजन भी नाजुक बनी हुई है। हिमाचल प्रदेश के कई हिस्सों में अप्रैल-मई के दौरान हुई अप्रत्यासित बारिश और ओलावृष्टि ने सेब बागबानों की चिंता बढ़ा रखी है। हालांकि कम पैदावार, मुनाफे और पिछले सीजन की भरपाई की चिंता के साथ बागबानों की समस्या केवल मौसम ही नहीं बल्कि राजनीतिक व निजी लाभों से जुड़े तथाकथित अभियान भी हैं, जो कभी जमीनी स्तर तो कभी सोशल मीडिया के माध्यम से प्रदेश के सेब बाजार में निजी कंपनियों की बढ़ती भूमिका को लेकर भ्रामक जानकारियों का प्रचार-प्रसार करने में जुटे हुए हैं।
रोहड़ू, जुब्बल, कोटखाई, कोटगढ़ और राजधानी शिमला के अलावा, सेब की अधिकांश खेती कुल्लू, मंडी, लाहौल, स्पीति, किन्नौर व चंबा जिलों में केंद्रित है। यहां के सेब कारोबार से 20 लाख से अधिक लोग सीधे तौर पर रूप से जुड़े हुए हैं। हाजिर तौर पर सेब न केवल हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, बल्कि हजारों परिवारों की आजीविका का एकमात्र स्त्रोत भी हैं, लेकिन लगभग 2 दशक से किसानों के लिए बेहतर सौदे और अधिक अवसर प्रदान करने का प्रयास कर रहीं निजी कंपनियों के खिलाफ जारी बेबुनियादी मुहिमों ने एक बार फिर किसानों के संकट को बढ़ाने का काम किया है। जिसका नुकसान न केवल इन कंपनियों और किसानों को झेलना पड़ेगा बल्कि मंडियों को संचालित करने वाले आढ़तियों, सेब के आवागमन से जुड़े ट्रांसपोर्टर्स आदि को भी उठाना पड़ेगा।
बेहतर सुविधा और अच्छा लाभ देने में सफल निजी प्लेयर्स
हिमाचल प्रदेश के वर्तमान हालत को ध्यान में रखते हुए प्रति बॉक्स पर 800-1000 रूपए तक का नुकसान आंका गया है, यानि 40-50 रूपए प्रति किलो के हिसाब से सेब कृषकों को हानि होने की आशंका है। वहीं पिछले साल बाढ़ के कारण प्रदेश की आधी से ज्यादा फसल बर्बाद हो गयी थी। किसानों की कमाई लागत से भी कम रही थी। ऐसे में निजी कंपनियों द्वारा हर साल की तरह मंडियों के विपरीत परामर्श प्रक्रिया का आयोजन कर, सेबों के मूल्यों से सम्बंधित हर विषय पर विचार किया गया था और मंडियों की तुलना में अधिक मूल्य पर सेब की खरीदी की गई थी। जहां पहले, किसानों को अपनी उपज कम दामों में बेचने के लिए मजबूर किया जाता था, वहीं अब उन्हें प्रति किलो के हिसाब से अच्छा दाम मिलता है। नतीजतन प्रदेश में पिछले साल राज्य कृषि विपणन बोर्ड की मंडियों में करीब 88 लाख 92 हजार और मंडियों के बाहर 89 लाख 66 हजार पेटियों का कारोबार हुआ था।
पारदर्शिता के साथ सुविधा और सहायता
सेब की खरीद और भुगतान प्रक्रिया में पारदर्शिता आई है। किसान अपनी आंखों के सामने सेबों की छंटाई देख सकते हैं और सीधे ऑनलाइन भुगतान प्राप्त कर सकते हैं। इतना ही नहीं निजी कंपनियां किसानों को परिवहन, उर्वरक और बागवानी सहायता प्रदान करती हैं। इससे किसानों को अपनी फसल का बेहतर प्रबंधन करने और अधिक पैसा कमाने में मदद मिलती है। वहीं जहां पहले, किसान मध्यस्थों पर निर्भर थे और उन्हें नकद भुगतान में देरी का सामना करना पड़ता था। अब, वे पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं कि वे किसे अपना सेब बेचना चाहते हैं। किसानों के पास सैकड़ों ट्रेडर्स, कमीशन एजेंट्स और मिडिल मैन होते हैं, और किसान अब अपनी फसल किसी को भी देने के लिए आजाद हैं।
सरकारी नीतियां और निजी कंपनियां
हालांकि एक सच यह भी है कि कुछ चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं, जैसे कि मूल्य में उतार-चढ़ाव और अनुबंधों की जटिलता। जिसके लिए सरकारी तंत्र लगातार काम कर रहा है. सरकार ने यूनिवर्सल कार्टन के नियम को लागू कर दिया है, जिससे बागवान पेटी में अब अधिकतम 24 किलो ही भर सकेंगे। इससे पहले बिचौलियों के दबाव में सेब बागवानों को एक पेटी में कभी 28 तो कभी 30 किलो सेब रखने पड़ते थे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि निजी कंपनियों का लक्ष्य लाभ कमाना है। लेकिन, जब वे किसानों को बेहतर सौदे और अधिक अवसर प्रदान करते हैं, तो यह सभी के लिए फायदेमंद होता है। यह कहना गलत होगा कि निजी कंपनियां हिमाचल प्रदेश के सेब बाजार पर कब्जा कर रही हैं और किसानों का शोषण कर रही हैं। वास्तव में, वे किसानों को सशक्त बनाने और उन्हें उनकी फसल का उचित मूल्य दिलाने में मदद कर रही हैं।